परिचय
भारत प्राचीन काल से ही पशुपालक देश रहा है। विशेष रूप से गाय और बैल भारतीय संस्कृति, कृषि और धार्मिक जीवन का अहम हिस्सा रहे हैं। परंतु आज देश के ग्रामीण क्षेत्रों में और शहरी क्षेत्रों में आवारा पशुओं की समस्या विकराल रूप ले चुकी है।
सड़कों पर घूमते हुए आवारा गाय-बैल न केवल ट्रैफिक और दुर्घटनाओं का कारण बन रहे हैं, बल्कि आवारा गाय-बैल फसलों को नुकसान पहुँचाकर किसानों को आर्थिक रूप से कमजोर कर रहे है। आवारा पशुओ की समस्या सामाजिक, आर्थिक और प्रशासनिक दृष्टिकोण से गंभीर होती जा रही है।
प्राचीन काल में पशुपालक अपने बैलो से कृषि कार्यों में हल चलाकर खेतो की जुताई करते थे और एक जगह से दूसरे जगह जाने के लिए भी बैलो की बैलगाड़ी से जाते थे ।
लेकिन अब ट्रैक्टर से खेतो की जुताई और एक जगह से दूसरे जगह जाने के लिए परिवहन का सहारा लिया जाता है। इसीलिए अब किसान अब बैलों को पालना बोझ समझने लगे हैं और उन्हें आवारा खुला छोड देते हैं।
इसी प्रकार जब गायें दूध नहीं देतीं हैं तो किसान उनके पालन-पोषण में रुचि नहीं लेते हैं और इसीलिए दुधारू नस्लों की गायो की मांग बढ़ी और बूढ़ी व बाँझ गायों को किसान छोड़ देते है और चारा महँगा होने से भी छोटे किसानों के लिए गाय-बैल पालन मुश्किल हो गया है।
आवारा पशुओं की समस्या के मुख्य कारण
कृषि और मशीनरीकरण
प्राचीन काल में पशुपालक अपने बैलो से कृषि कार्यों में हल चलाकर खेतो की जुताई करते थे और एक जगह से दूसरे जगह जाने के लिए भी बैलो की बैलगाड़ी से जाते थे ।
ट्रैक्टर, थ्रेशर और आधुनिक मशीनों के आने से बैलों की उपयोगिता घट गई।
अब किसान अब बैलों को पालना बोझ समझने लगे हैं और उन्हें आवारा खुला छोड देते हैं।
दूध उत्पादन पर आधारित गायों की प्रासंगिकता
जो गायें दूध नहीं देतीं, किसान उनके पालन-पोषण में रुचि नहीं लेते हैं।
दुधारू नस्लों की मांग बढ़ी तो किसानो ने बूढ़ी व बाँझ गायों को छोड़ने लगे।
चारे और रख-रखाव की समस्या
चारा महँगा हो गया तो छोटे किसानों के लिए गाय-वैल पालन मुश्किल गया।
पशुओं को रखने के लिए पर्याप्त स्थान, गोशाला और चरागाह भी उपलब्ध नहीं हैं ।
धार्मिक और सामाजिक कारण
भारत में गाय को माँ का दर्जा दिया गया है।
बूढ़ी, बीमार और अनुपयोगी गायों को न तो बेचा जा सकता है और न ही मारा।
परिणामस्वरूप वे सड़कों और खेतों में भटकती रहती हैं।
प्रशासनिक लापरवाही
नगर निकाय और पंचायतें गोशालाओं का निर्माण और रखरखाव नहीं कर पातीं हैं।
आवारा पशुओं की पहचान और पुनर्वास की ठोस व्यवस्था का अभाव है।
आवारा पशुओं की समस्या के असर
कृषि पर प्रभाव
खेतों में बोई गई फसलें रातों-रात आवारा पशुओं द्वारा नष्ट कर दी जाती हैं।
गन्ना, गेहूँ, धान, सब्ज़ियाँ और दलहन जैसी फसलें सबसे अधिक प्रभावित होती हैं।
इससे किसानों को सीधा आर्थिक नुकसान होता है।
सड़क सुरक्षा पर खतरा
हाईवे और शहरी सड़कों पर अचानक गाय या बैल का आ जाना दुर्घटनाओं का कारण बनता है।
राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के आँकड़ों के अनुसार, हर साल हजारों सड़क दुर्घटनाएँ आवारा पशुओं की वजह से होती हैं।
सामाजिक-आर्थिक प्रभाव
गरीब किसान पशु पालने की बजाय उन्हें छोड़ देता है, जिससे समाज में असुरक्षा बढ़ती है।
गाँवों और कस्बों में आए दिन फसलों पर विवाद और झगड़े होते हैं।
पर्यावरणीय असर
कचरा खाने से इन पशुओं का स्वास्थ्य बिगड़ता है।
पॉलीथिन और प्लास्टिक निगलने से बड़ी संख्या में गायों की मृत्यु हो रही है।
धार्मिक और सांस्कृतिक असर
गाय भारतीय संस्कृति और धर्म में पूजनीय है।
परंतु सड़कों पर मरती-भटकती गायें हमारे सामाजिक और धार्मिक दायित्वों पर प्रश्नचिह्न लगाती हैं।
आवारा पशुओं की समस्या के समाधान
गोशालाओं का विकास
हर पंचायत स्तर पर आधुनिक गोशालाएँ बनाई जानी चाहिए।
इनके रखरखाव के लिए सरकारी और सामाजिक संगठनों का सहयोग आवश्यक है।
कानूनी और नीतिगत कदम
पशुओं की पहचान (Aadhar for Cows) जैसी योजनाएँ लागू की जाएँ।
गायों और बैलों के पुनर्वास के लिए ठोस नीति बने।
चारा बैंक और चारागाहों का विकास हो।
कृत्रिम गर्भाधान और नस्ल सुधार
100% कृत्रिम गर्भाधान सुनिश्चित किया जाए।
बाँझ या दूध न देने वाली गायों को चिह्नित कर उनके प्रबंधन की व्यवस्था की जाए।
किसानों को प्रोत्साहन
दूध उत्पादन के साथ-साथ गोबर गैस और ऑर्गेनिक खाद के उपयोग को बढ़ावा दिया जाए।
गाय-बैल को बोझ न मानकर उनके अन्य उपयोगों को आर्थिक रूप से मजबूत किया जाए।
तकनीकी समाधान
GPS आधारित ट्रैकिंग और स्मार्ट कॉलर से पशुओं की पहचान की जा सकती है।
इससे आवारा पशुओं को पकड़ने और पुनर्वास में आसानी होगी।
सामाजिक भागीदारी
समाज और धार्मिक संगठनों को गोशालाओं के रखरखाव में भागीदारी करनी चाहिए।
“गाय दान” की परंपरा के साथ “गाय पालन” की जिम्मेदारी भी बढ़ाई जानी चाहिए
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